शनिवार, 27 दिसंबर 2008

कविता २. अर्थहीन समर्पण

. अर्थहीन समर्पण

नदी कहलाकर नारी,
मुक्त हो जाना चाहती है.अपने अस्तित्व से अपने आप से ,अपने कर्तव्यों से ,
खुद ही आसान सी नियति तय कर लेती हैं अपनी ज़िंदगी की
कि बस मैं एक नदी हुं,और मुझे सागर में मिल जाना है
भले ही सागर खारा क्यूं न हो.
ना जाने कहां कहां की कौन कौन से नदियां उसमे आ आकर मिलती हैं
उसकी अपनी पहचान फ़िर भी सागर की सी ही है
भई वाह ! कबी आपने सोचा है कि इस मिलावट मे
इस अर्थहीन समर्पन में नदी को क्या फ़ायदा है ?
सागर की सेहत पर इसका क्या असर हुआ है?
क्या सागर ने कभी ने कभी अपना एक छोटा सा हिस्सा भी
कभी किसी नदी के नाम किया है?नहीं ना?
तो फ़िर क्यों सागर में समाने दौडी़ चली आती हो?
जहां हो वहीं रहो, क्योंकि नदी का नाम मिठास है,प्यार है.खार नहीं
फ़िर खारी होने का, सागर में समाने का क्या औचित्य?
इससे तो अच्छा है तुम जहां हो वहीं सूख कर धरती मे समा जाओ
अगर कहीं से कोई प्यासा आकर तुम्हे धरती से
भी निकालना चाहेगा तो किसी तरह निकाल लेगा
और तुम फ़िर एक बार ज़िन्दा हो जाओगी
लेकिन सागर में मिलने के बाद?
फ़िर एक बून्द भी तुम्हारी अपनी नही बचेगी
तुम भी प्यासी,
जग भी प्यासा
न रहेगा प्यार
बस बचेगा खार !

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4 टिप्‍पणियां:

  1. अनीता जी आपका चिंतन बहुत सूक्ष्म और गहरा है आपकी कलम मैं प्रवाह है बहुत सुंदर
    प्रदीप मनोरिया ०९४ २५१ ३२०६०

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  2. वैदुष्य पूर्ण रसात्मक अभिव्यक्ति ..शुभकामनाएं ..
    मेरा ब्लॉग का भी आनंद लीजिये

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  3. "नदी का नाम मिठास है,प्यार है. खार नहीं"

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  4. jeene ke liya apne phir uksaaya he, soctha tha, is jahan mein, aana hain to usse jana bhi hain,
    bas itna hi nata rishta hain, kehne ke to kahan khoon ke sage bhi ab paraye hi hote hain,
    apna to kahne ko koi nahin, sochta tha ke chalo yeh dil machalta hain ek bache ki tarah ta-umār, chal dard kahin par kisi se khud ki khudi hi se behalane ya phusalane ka bahana dhoondh lete hain.

    dard-e-dariya

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